हीरासिंह राणा को परिभाषित करना असंभव है। हर शब्द अपूर्ण है। कुछ भी पर्याय नहीं। है तो बस, उत्तराखंडियत। पहाड़ का ही दूसरा नाम है हीरासिंह राणा। 15 साल में जो कलम उठाई तो जैसे पहाड़ बोलने लगा। 60 के दशक की शुरुआत में इस कलम से पहले शब्द फूटे- आलिली बाकरी लिली…पहाड़ के ग्वाले के रूप में दूसरे के खेत में (परदेस) में उज्याड़ खाने जा रही (पलायन) बकरी को उनकी कलम ने धाद लगानी शुरू की तो ये सिलसिला मई 2020 तक नहीं थमा। इसी दशक में इस कलम ने ‘मैं ले छौं ब्यचो एक, मनखौं पड़्यों मैं…ठाड़ी रौं न्यरा न्यैरी हजूरों की स्यो मैं’ पंक्ति के जरिए खुद की बोली लगाई। लेकिन उसका खरीदार भला कहां मिलता। फक्कड़ की यायावरी शुरू हुई। वो आंखें बस पहाड़ को ही देखती थीं और उनमें सिर्फ पहाड़ बसा था। कलम की धार मुंबई तक ले गई लेकिन चकाचौंध रास न आई। हुड़के ने अपनी घमक गहरी करने के लिए वापस बुला लिया।
अचकाल हैरे ज्वाना मेरी नौली पराणा, रंगिलि बिंदि घाघरि काइ धोती लाल किनर वाइ अइ हइ रे मिजाता जैसे गीतों के जरिए प्राकृतिक सौंदर्य को एकदम नई उपमाओं के साथ रचने वाला फक्कड़ मेले-खेलों में आम जन की आवाज बनने लगा। धै द्यूणों हिंवाल चलो ठाड़ उठौ, लस्का कमर बांदा हिम्मता का साथा जैसी पंक्तियां पहाड़ के युवाओं में नई ऊर्जा भरकर पहाड़ को संवारने का संकल्प लेने के लिए प्रेरित करने लगीं। दिनभर गांव-खोलों और लोगों के बीच अपने गीत गाने वाले हीरा सिंह राणा बड़ों के लिए हिरू और छोटों के लिए हिरदा बन गए। हिरदा दिनभर पहाड़ को अपने गीतों में संजोकर गाते और रात बाबाओं के डेरों में बिताते। ये सिलसिला चलता रहा तो 70 का दशक आ गया। उनके लिखे गीत चारों तरफ ख्याति पा रहे थे। परदेस में रहने वाले साधन संपन्न लोगों ने हिरदा को रेडियो में गाने के लिए कहा। मुलाकात केशवदास अनुरागी से फिर नित्यानंद मैठाणी से हुई। रेडियो से हिरदा की आवाज अब जन जन में रस बस चुकी थी। उनके लिखे रुपसा रमोली घुंघुरू ना बजा छम छमा गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज में जनता के बीच आ चुका था।
दिल्ली में रहने वाले मानिला के लोग कुमाउनी रामलीला का आयोजन करते थे। राणा जी हर साल यहां पहुंचकर लोगों को अपने नए नए गीत सुनाते। इस बीच पहाड़ियों का एक बड़ा कार्यक्रम दिल्ली में हुआ। मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। हिरदा ने इस समारोह के लिए खास गीत लिखा जिसके बोल थे- कैले बजै मुरुली ओ बैंणा ऊंची निची डांन्यूं मां। उन्होंने इंदिरा जी को बैंणा शब्द से पुकारा था। बाद में ये गीत भी आधा अधूरा कैसेट में गाया गया और आज भी ये हरेक के कानों में गूंजता है।
जमाने के साथ राणा जी की कलम हमेशा नई धार में सामने आती रही। सत्ताएं बदलीं, उनकी कार्यशैली बदनाम होती गई तो ये कलम उसी तरह मुखर होती गई। राणा जी भावनाओं को शब्द देकर उन्हें तान में ढालते रहे। राजनीति में जब कुर्सियों की खींचतान चल रही थी, अफसरशाही मस्त थी, तब कलम का ये चितेरा कबीर की तरह अपना कर्तव्य निभाता रहा और ‘जुग बजाने गया बिणाई जुग बजाने गया’ जैसे गीतों से जनता को जगाता रहा। दिल की पीड़ाएं ‘हिरदी पिड़ा कैले नी जाणी सब्यूं लै चायो आंख्यूं को पाणी’ जैसी पंक्तियों के साथ बांटी गईं तो ‘अगर हम पहाड़ी हना भल रिवाड़ी एक मजबूत इमारत है जानी ठाड़ी’, त्यार पहाड़ म्यार पहाड़ जैसे गीतों ने उत्तराखंडियत को जगाने का काम किया।
आहा रे जमाना ओहो रे जमाना, शुर शराबैल हाइ मेरी मौ लाल कैदी, चली गे हो शराब गौं गौं मैं, शराबै की थैली ओ शराबै की थैली आदि आदि दर्जनों गीतों ने पर्वतवासियों को बिसराते मूल्यों को न भुलाने की प्रेरणा तो दी ही, शासन करने वालों पर तीखे कटाक्ष भी किए।
स्वर्गतारा जुन्याली राता, के संध्या झूली रै छौ, घाम गयो धार मां, मेरी मानिलै डानि, धना धना धानुली, गोपुली बौराणा आदि जैसे गीतों ने हीरासिंह राणा को तमाम लोककवियों, लोककलाकारों, लोकगायकों में शीर्षस्थ रखा।
उत्तराखंड रत्न के नाम से मशहूर हीरासिंह राणा के गीतों को संपूर्ण उत्तराखंड में पहचान उनकी खास शब्द संरचना से मिली। वे पहले ऐसे गीतकार और गायक थे जिनके शब्द गढ़वाल और कुमाऊं दोनों अंचलों के लोग सहज रूप से समझ जाते थे।
राणा जी जनजन के बीच गीत गाने वाले लोकगायक और जनकवि के तौर पर पहचाने जाते थे। उनके गीत सामने सुने जाते थे। उनके गीत रेडियो जैसे जनमाध्यम से बजते थे। कैसेट कंपनियों से उन्होंने एक समय बाद तौबा कर ली थी। वे कहते थे ये गीतों के व्यापारी हैं और मैं अपने गीतों का व्यापार नहीं कर सकता।
सबके प्यारे हिरदा की 60 वर्षोें से भी लंबी ये संघर्ष यात्रा13 जून 2020 को भोर में ढाई बजे अचनाक थम गई। गत मई में कोरोना पर उन्होंने अपनी आखिरी रचना रची थी। बोल थे- ओ रे निर्दयी कोरोना त्वीकैं दई-मई के छौ ना….। कोटि कोटि नमन।
नम आंखों से लिखा गया लोकगायक , वरिष्ठ पत्रकार, सम्पादक , डॉक्टर अजय ढोण्डियाल की कलम से