■राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय का दम्भ भरने वाले पीठ दिखा भागे पहाड़ से■
सुना है ‘जन सरोकारों’ का मुलम्मा चढ़ाकर ‘खबरें’ बेचने वाली कम्पनियों के लाला, जो राष्ट्रीय होने का दम्भ भर सीना फुलाते न थकते हैं, पहाड़ में उनका दम फूलने लगा है। एक-एक कर अपनी ‘फ्रैंचाईजी’ को बन्द करने का सिलसिला शुरू कर चुके हैं।
सबसे पहले बात करें, उस ‘ब्रैंड’ की, जिसके बाबत कहा जाता था कि पहाड़ियों में ’27 नम्बर’ बीड़ी और ‘अमर उजाला’ का स्वाद लत की तरह शामिल है, सौभाग्य/दुर्भाग्य से मैंने भी पत्रकारिता की शुरुआत इसी ब्रैंड से की। लेकिन लाला जी की नई और बेहद प्रॉफेसनल पीढ़ी ने फ़ैसला किया है कि पहाड़ से पैसा तो बिना फ्रेंचाइजी के भी कमाया जा सकता है। सो सारे ऑफिस बन्द कर ‘मनरेगोत्तर’ दिहाड़ी वाले ‘पतरकारों’ को सड़क पर ला खड़ा कर दिया।
आजादी से पहले के प्रतिष्ठित अखबार ‘हिंदुस्तान’ ने भी न केवल गुप् चुप तरीके से पहाड़ की सभी दुकानें बंद कर दी हैं बल्कि अपनी ‘फ्रेंचाइजी’ के तमाम ‘काउंटर बॉयज'(रिपोर्टर) का मोबाइल/फ़ोन/पेट्रोल का खर्चा देना भी बन्द कर दिया है। अब कुछ बेचारे रिपोर्टर अपनी साख बचाने को अपने किराए पर ही स्वयम्भू ‘मठाधीश’ बनने को मजबूर हैं। मुझे स्मरण है 2008 में जब पहाड़ में हिंदुस्तान ने ‘पूरी तैयारी है’ का नारा दिया तो हम भी अमर उजाला से हिंदुस्तान को पलायन कर गए थे। और आज ‘हिंदुस्तान’ ही पहाड़ से पलायन कर गया।
स्वयम को दुनिया का सबसे विशाल कहने वाला ‘दैनिक जागरण’ भी इसी राह होगा..
बहरहाल, आज के डिजिटल मीडिया के दौर में वैसे भी अखबारों की प्रासंगिकता गौण हो चली है लेक़िन बावजूद इसके पहाड़ के साथ इन अखबारों का यह रवैय्या निंदनीय है। जरूरत इस बात की है कि पहाड़ में इनका सर्कुलेशन और पहाड़ के सरकारी/गैर सरकारी कार्यालयों से इनको विज्ञापन देना भी पूरी तरह बन्द हो। अन्यथा लालाओं की तो चांदी ही चांदी होगी, उनके लिए तो ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा’ होगा।
वहीं ‘छपास’ के रोगी छुटभैयों से कूपन के जरिये विज्ञापन/पैसा इकट्ठा करने का सिलसिला भी टूटना जरूरी है।
जय पहाड़..