तारीख 4 मार्च 2020 को
गैरसैंण मै ही मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने घोषणा की गैरसैंण
ग्रीष्मकालीन राजधानी होगी
ओर 8 जून 2020 को
गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किये जाने की अधिसूचना जारी कर दी गई
फिर पहाड़ी राज्य उत्तराखंड मै सवाल उठने लगा कि लगभग
पचास करोड़ से भी अधिक क़र्ज़ के तले दबे पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में जहां कर्मचारियों का वेतन भी ऋण लेकर दिया जा रहा है, वहां सरकार के दो राजधानियों को चलाने का फ़ैसला क्या ठीक है ?
ख़बर वायरल हुई कि
एक सर्वेक्षण एजेंसी द्वारा अपने एक सर्वे में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को देश के सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में दूसरे स्थान पर रखे जाने के ठीक चार दिन बाद उत्तराखंड सरकार ने गैरसैंण (भराड़ीसैण) को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा की पुष्टि के लिए अधिसूचना जारी कर दी।
फिर ख़बर फैली की यह घोषणा भी भराड़ीसैण में विधानसभा के शीतकालीन सत्र में उस समय की गई थी जबकि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें चरम पर पर थीं!
ख़बर ये भी वायरल हुई की
जब पहाड़ी राज्य उत्तराखंड मै
कोराना मरीजों की संख्या 100 से कम थी और पहाड़ी जिलो मै
मरीजों की संख्या ना के बराबर थीं
जो ख़बर लिखे जाने तक 2000 के आंकड़े को छू रही है ।
ओर राज्य मै एक लाख 90 हज़ार से अधिक प्रवासी आ चुके है तो
उस दौरान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र ने कैसे
ये मान लिया या मानकर चले कि कोरोना से इफेक्टेड की तादात 25 हज़ार तक हो सकती है ?
क्या कोरोना काल मैं ग्रीष्मकालीन राजधानी का शिगूफा छेड़ना भराड़ीसैण को राजनीतिक ढाल बनाने का प्रयास तो नहीं है?ये भी सवाल खड़े हो रहे है
सवाल खड़े किए गए कि
यदि त्रिवेन्द्र सरकार सच मै गंभीर होती तो मार्च में इसकी घोषणा के साथ ही अधिसूचना भी जारी कर देती. (मतलब 4 मार्च 2020 को )
बात ये भी उठी की इस मुद्दे को जिस तरह प्रचारित किया जा रहा है वह महामारी के संकट से कही ध्यान भटकाने जैसा तो नही है ?
पहाड़ी राज्य बोलता है
पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होना
ये उत्तराखंड के लिए एक बेहद भावनात्मक मुद्दा है.
जैसा कि हम जानते उत्तराखंड हिमालयी राज्य है और इसकी विशेष भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए इस पहाड़ी राज्य की मांग उठी थी और इसके लिए तीन दर्जन से अधिक लोगों ने अपनी जानों की कुर्बानी भी दी थी.
ओर इसी भावनात्मक के कारण राजनीतिक दलों के ऐजेंडे में गैरसैंण प्रमुखता से रहता आया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पहाड़ के लोग अपनी पहचान के लिए जितने भावुक और विकास के लिए जितने लालायित हैं, वे नादान होंगे बल!!
अगर ऐसा होता तो राज्य गठन के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) के प्रत्याशी की उसी कर्णप्रयाग क्षेत्र में जमानत जब्त नहीं होती. उस समय उक्रांद प्रत्याशी को 11 सौ से कम मत मिले थे, जबकि गैरसैंण उक्रांद का मुख्य मुद्दा रहा है.
इसके बाद कांग्रेस सरकार ने सबसे पहले वहां 3 नवंबर 2012 को कैबिनेट की बैठक कर अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी. उसके बाद 9 जून से 12 जून 2014 तक वहां विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र टेंटों में चला.
वहां दूसरा सत्र 2 नवंबर 2015 से चला.
फिर कांग्रेस के ही कार्यकाल में 2016 में 17 एवं 18 नवंबर को गैरसैंण के निकट ही भराड़ीसैण में विधानसभा सत्र नवनिर्मित विधानसभा भवन में आयोजित हुआ. वहां भवन आदि पर 100 करोड़ से अधिक की राशि भी कांग्रेस सरकार ने ही खर्च की थी. इसके बावजूद 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को प्रदेश की 70 में से केवल 11 सीटें मिलीं और स्वयं हरीश रावत एक नहीं बल्कि दो सीटों पर चुनाव हार गए थे बल
अलग उत्तराखंड राज्य के संघर्ष में उक्रांद की नेतृत्वकारी भूमिका थी, इस राजनीतिक दल का गठन ही अलग राज्य की लड़ाई लड़ने के लिए हुआ था. फिर भी पहले चुनाव में उसे 70 में से मात्र 4 सीटें मिलीं. जाहिर है कि पहाड़ के लोग भोले कहे जरूर जाते हैं, मगर राजनीतिक रूप से नादान हरगिज नहीं हैं.
अब सवाल ये उठ रहा है कि क्या गैरसैंण में बैठकर एक राजधानी के रूप मे बतौर काम किया जा सकेगा?
राजधानी का मतलब केवल कुछ दिन का विधानसभा सत्र नहीं होता. जिस भराड़ीसैण में मार्च में आयोजित बजट सत्र के पांचवें दिन ही मुख्यमंत्री समेत भाजपा के 56 में 39 विधायक और 9 मंत्री ठंड के डर के चलते वापस देहरादून आ गए थे,
वहां आला अफसरों की लंबी-चौड़ी फौज पूरे सरकारी तामझाम के साथ पहुंचकर काम कर पाएगी?
अगर यह सरकार का कोई राजनीतिक पैंतरा नहीं है तो वहां जम्मू और कश्मीर की जैसी व्यवस्था करने के लिए 6 महीनों के लिए समूचा सचिवालय स्थापित करना होगा
और कार्यालयों के साथ ही हजारों अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए परिवार समेत आवासीय व्यवस्था भी करनी होगी.
इसके लिए पहले वहां समस्त सुविधाओं से युक्त एक टाउनशिप विकसित करनी होगी.
बता दे कि वर्तमान में 70 विधायकों और 12 सदस्यीय मंत्रिमण्डल के अलावा विधानसभा का 332 सदस्यीय स्टाफ है. अगर सचिवालय प्रशासन भी वहां ले जाया गया, तो मुख्य सचिव जैसे आला अधिकारियों समेत कुल 1,854 अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्यालय और कम से कम आधा दर्जन श्रेणियों के आवास की व्यवस्था करनी होगी.
राजधानी बिना पुलिस मुख्यालय के नहीं चलती, इसलिए वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों समेत हजारों पुलिसकर्मियों के लिए भी वहां व्यवस्था करनी होगी. कम से कम विधानसभा सत्र के दौरान तो सभी विभागों के मुखियाओं का राजधानी में रहना अनिवार्य होता है.
बता दे कि वर्तमान में प्रदेश में 63 विभाग, 7 निदेशालय और बोर्ड, निगम और प्राधिकरणों समेत सरकारी संस्थाओं की संख्या 22 है. राजधानी चयन के लिए गठित दीक्षित आयोग ने वहां लगभग डेढ़ लाख की आबादी वाली टाउनशिप के लिए ही कम से कम 960 हेक्टेयर जमीन की जरूरत बताई थी.
आयोग के अनुसार, सरकारी कार्यालयों और आवासों के लिए ही 500 हेक्टेयर और कम से कम 360 हेक्टेयर की जरूरत बताई थी, जबकि सरकार अब तक यहां केवल 201.54 हेक्टेयर भूमि का ही अधिग्रहण कर पाई है.
इससे पहले जून 2019 मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने गढ़वाल कमिश्नरी के मुख्यालय पौड़ी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर कमिश्नरी स्तर के अधिकारियों को पौड़ी में तैनात करने का वादा किया था, लेकिन कमिश्नर या डीआइजी को बिठाना तो रहा दूर उस कृषि विभाग को वापस पौड़ी नहीं भेजा जा सका जो पौड़ी से खिसककर देहरादून आ गया था.
ऐसी स्थिति में प्रदेश के आला अफसरों को भराड़ीसैण में बिठाने की बात करना ही शेखचिल्ली की घोषणा जैसा है. फिर 50 हजार करोड़ से भी अधिक कर्ज के बोझ से दबे उत्तराखंड में जहां कर्मचारियों का वेतन भी कर्ज लेकर दिया जाता है, वहां दो-दो राजधानियों की सोच वैसे ही व्यावहारिक नहीं है बल
इस समय महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर तथा हिमाचल प्रदेश की धर्मशाला में हैं, मगर इन दोनों जगहों से शासन चलाने के बजाय वहां केवल सप्ताहभर के लिए विधानसभा का शीतकालीन सत्र ही चलता है. जम्मू-कश्मीर में दो राजधानियां चलाना भौगोलिक और प्रशासनिक मजबूरी है.
जहां तक आंध्र प्रदेश का सवाल है तो वहां भी राजनीतिक कारणों से प्रदेश की राजधानी अमरावती और विजाग के बीच झूल रही है. कोरोना बीमारी के महासंकट के कारण प्रदेश क्या, देश की अर्थव्यवस्था ही जर्जर अवस्था में पहुंच चुकी है, ऐसे में दो राजधानियों का यह खेल खेलना ही बचकाना है।