इस घर में एकांतवास पर हूं। हालांकि उत्तराखंड सरकार ने राज्य के नागरिकों के लिए राज्य में एक से दूसरे जिले में जाने पर क्वारंटीन की व्यवस्था समाप्त कर दी है, लेकिन गांव के लोगों को यह समझाना पानी पर पानी लिखना जैसा कठिन कार्य है। इसलिए क्वारंटीन न रहते हुए भी क्वारंटीन होना मेरी मजबूरी है। इस समय मेरा भरा-पूरा गांव है, अनेक लोग शहरों‌ से आए हुए हैं, पर मैं चाहकर भी किसी के घर नहीं जा रहा हूं, मेरे अगल-बगल के घरों में रहने‌ वालों को भी मेरे आने की खबर और गतिविधियों की जानकारी फेसबुक और व्हट्सअप से मिल रही होगी। गांव के लोगों के साथ रहने का इस बार अनोखा आभासी एहसास है, उनसे मुखातिब नहीं होने का रंज है। जैसे आत्मा का वास हमारे शरीर में होता है, उसका एहसास होता है,पर दिखाई नहीं देती।


  • गांव के लोगों का मन ज्यादा साफ होता है। साफ चीजों पर बातें अच्छे से अंकित होती हैं। कोरोना को लेकर फैली भ्रांतियों का यहां अधिक असर होने का यही कारण है। हालत यह है कि यहां बाहरी व्यक्ति बीमारी का दूत  माना जा रहा है। गांव के मार्ग में पड़ने वाले जिन गांवों में हमेशा हमारी आवभगत होती रही,  आजकल वे लोग हमें भावविहीन होकर प्रश्नवाचकता के साथ देख रहे थे। भोजन देने की बात तो छोड़िए, लोगों ने पानी पीने और बैठने तक का आग्रह नहीं किया, जबकि एक गांव में शादी समारोह भी था। भाई-बंधुओं और जाति-बिरादरी के बीच वैमनस्य पैदा होने का एक बड़ा कारण यह कोरोना फोबिया ही है।


बहरहाल, गांव के घरों और क्वारंटीन सेंटरों की हालत को देखकर मैं कह सकता हूं कि बीमारी के संक्रमण को रोकने और शहर से लौटकर आने वाले लोगों के स्वास्थ्य के दृष्टिगत होम क्वारंटीन बेहतर है। चार शहरों से आए लोग एक क्वारंटीन सेंटर में 14 दिन एक साथ रहते हैं तो संक्रमण की आशंका अधिक रहती है। कोई क्वारंटीन में आज भर्ती होता है तो वह कल डिस्जार्ज होकर गए लोगों के बर्तन-बिस्तर, शौचालय आदि इस्तेमाल करेगा, इससे भी संक्रमण फैलेगा। उधर, अपने घरों में व्यक्ति चाहे कम संसाधनों में भी रहे,लेकिन वह बीमारी से सुरक्षित रह पाएगा।

ये लेख  पहाड़ी राज्य न्यूज़ पोर्टल के लिए   डॉक्टर   वीरेंद्र  सिंह बर्त्वाल  जी की फेसबुक से लिया गया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here