उत्तराखंड में भाजपा अगर बहुमत के आंकड़े से पहले ठहर जाती है तो फिर पूर्व सीएम डॉ.रमेश पोखरियाल निशंक की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और निशंक की मुलाकात के सियासत के गलियारों में यही मायने निकाले जा रहे हैं। विजयवर्गीय को भाजपा के सियासी प्रबंधक के तौर पर जाना जाता है।

पार्टी हाईकमान ने कई प्रदेशों में उन्हें इस रूप में इस्तेमाल भी किया। हालांकि, वे कई बार असफल भी हुए। कांग्रेस, विजयवर्गीय को उत्तराखंड में 2016 में अपनी पार्टी में हुई बगावत का सूत्रधार मानती है। अब चुनाव के नतीजे आने से पहले विजयवर्गीय की उत्तराखंड में दस्तक से सियासी हलचल बढ़ गई है।

इस दौरान डॉ.निशंक के साथ उनकी बैठक के कई निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। निशंक को भी सत्ता प्रबंधन में माहिर माना जाता है। लंबा राजनीतिक करिअर होने से विपक्ष के साथ ही निर्दलीयों से भी उनके करीबी संबंध रहे हैं। यदि भाजपा बहुमत की गणित से दूर रहती है तो फिर निशंक की जिम्मेदारी बढ़ सकती है। 2007 के चुनाव में भाजपा बहुमत के आंकड़े से मात्र एक सीट दूर थी।

तब निशंक पौड़ी से जीते निर्दलीय यशपाल बेनाम को अपने साथ दून लाए। हालांकि पार्टी ने तब यूकेडी से भी समर्थन हासिल कर लिया था। वर्ष 2012 में भाजपा 31 सीटों पर अटक गई। तत्कालीन सीएम बीसी खंडूड़ी के हारने पर उनकी तरफ से सरकार बनाने की कोशिश नहीं हुई तो फिर निशंक सक्रिय हो गए थे। लेकिन भाजपा हाईकमान के एक नेता ने तब उन्हें जुगत लगाने की इजाजत नहीं दी।

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