भूकंप की पूर्व चेतावनी के लिए उत्तराखंड में लगाए गए सेंसर के मामले में जल्द देश आत्मनिर्भर होगा। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) रुड़की के आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन उत्कृष्टता केंद्र में स्थित अर्थक्वेक अर्ली वार्निंग लैब ने यह सेंसर डिजाइन किया है। इसे भू-सेंसर नाम दिया गया है। वहीं, अर्थक्वेक अर्ली वार्निंग सिस्टम प्रोजेक्ट के तहत अभी तक संस्थान ने गढ़वाल-कुमाऊं में जो कुल 165 सेंसर लगाए हैं, वो ताइवान से मंगाए गए थे। लेकिन, आइआइटी रुड़की की लैब में विकसित सेंसर ताइवान से मंगाए गए सेंसर की तुलना में अधिक गुणवत्ता वाले हैं।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अर्थक्वेक अर्ली वार्निंग सिस्टम फार नार्दर्न इंडिया प्रोजेक्ट पर आइआइटी रुड़की वर्ष 2014 से काम कर रहा है। इसके तहत भूकंप अलर्ट को गढ़वाल और कुमाऊं में सेंसर लगाए गए हैं। यहां यदि रिक्टर पैमाने पर 5.5 परिमाण से अधिक का भूकंप आता है तो ये सेंसर चेतावनी जारी कर देते हैं। चमोली से उत्तरकाशी तक कुल 82 और पिथौरागढ़ से लेकर धारचूला तक 83 सेंसर लगाए गए हैं। ये सेंसर ताइवान से मंगाए गए थे।
आइआइटी में तैयार भू-सेंसर की और भी कई विशेषताएं हैं।
इसका एल्युमीनियम का ढांचा है और डिस्प्ले में तीन एलईडी बटन हैं। एक बटन से पावर चालू होने, दूसरे से सिस्टम चल रहा है या नहीं और तीसरे से सेंसर सर्वर से जुड़ा है या नहीं का पता चलेगा। पुराने सेंसर में बाहर से ये बातें पता नहीं चल पाती हैं। भू-सेंसर सोलर पैनल से चल सकता है और इसका बैटरी बैकअप सात-आठ दिन का है। वहीं, कुमाऊं में लगे सेंसर का बैटरी बैकअप तीन-चार घंटे का है। जबकि, गढ़वाल में लगे सेंसर का बैटरी बैकअप नहीं है। पुराने सेंसर से कभी-कभी गलत चेतावनी की भी आशंका रहती है, क्योंकि यह अपने आसपास होने वाली अन्य तरह की हलचल को भी रिकार्ड कर लेता है। जबकि, भू-सेंसर के साथ ऐसा नहीं है। पुराने सेंसर की कनेक्टिविटी के लिए ब्राडबैंड जरूरी है, जबकि भू-सेंसर 3जी व 4जी सिम से भी कनेक्ट किया जा सकता है।